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” सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूर्णतया भ्रष्ट करती है ” – बीते हुए पांच सालो में उत्तर प्रदेश की भू॰ पू॰ मुख्य मंत्री मायावती अलेक्जेंडर पोप के इस सुप्रसिद्ध कथन की सटीक शहादत देती हुई नजर आयी | यधपि उन्हें जो अवसर प्राप्त हुआ था वह स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में दुर्लभ था | दलित राजनीति का प्रारम्भ वैसे तो जस्टिस पार्टी के उदय के साथ दक्षिण भारत में हुआ था पर दलितों को सत्ता में आने का ऐसा सुयोग उत्तर में ही प्राप्त हुआ | परन्तु मायावती इस महान सुअवसर का लाभ उठाने से फिलहाल चूक गयी है | सर्वसमाज का उनका नया नारा सत्ता प्राप्ति के लिए बनाए गए अवसरवादी गठबंधन के अलावा और कुछ साबित नहीं हुआ |
परन्तु अवसरवाद के कलंक को ढोती हुई , यू पी की राजनीति में हाल तक बहुप्रचलित रही , इस शब्दावली पर यदि गहनतापूर्वक विचार किया जाय तो अपने आप में यह एक क्रांतिकारी अवधारणा है पर जिस प्रकार भारतीय राजनीति के पटल में भगवा और धर्मनिरपेक्ष आदि शब्द रूढ़ हो चुके है और अपने वास्तविक अर्थो को लगभग खो चुके है – कुछ वैसा ही हाल इस शब्द का भी हो चुका है | अब इसका ध्वनित अर्थ कुछ और है और अंतरनिहित अर्थ कुछ और , अन्यथा यह शब्द सामाजिक गतिशीलता को एक नया रूप दे पाने में सक्षम था | दलित जातियों द्वारा सत्ता का सूत्र अपने हाथ में रख कर उच्च जातियों को दिशा देना , यह कल्पना ही अपने आप में क्रांतिकारी और अभूतपूर्व थी जिसे सकारात्मक दिशा दे कर और आगे बढाया जाना चाहिये था पर संस्थानिक भ्रष्टाचार और व्यक्तिगत सनक ने इसे पूरी तरह निगल लिया |
वास्तव में सर्वसमाज की कल्पना को साकार रूप देने के लिए इतिहास की शव साधाना से बाहर आने की जरूरत थी | उदारता और इच्छा शक्ति का उचित मात्रा में संयोजन किसी भी राजनीतिक व्यक्तित्व को महान की श्रेणी में ला खडा करता है पर मायावती में प्रथम गुण का पूरी तरह आभाव दिखाई दिया |
वह दल जो सत्ता के विकेंद्रीकरण के स्वप्न को ले कर खडा हुआ था सत्ता के केन्द्रीयकरण के कारण भ्रष्टाचार के मायाजाल में उलझ कर रह गया | वास्तव
में किसी भी प्रकार की राजनीति और उसमे भी दलित राजनीति का मार्ग राजनीतिक उदारवाद के समान्तर हो कर गुजरता है क्योकि सत्ता प्राप्ति के बाद दलितों में प्रदर्शनात्मक प्रवृति का आ जाना अत्यंत स्वाभाविक है ( सन्दर्भ – एम एन श्रीनिवास ) और यह नेतृत्व का कार्य है की वह सत्ता के प्रतिष्ठान को प्रदर्शनात्मक प्रवृति से बचाए रखे |
जाति की समस्या का सही इलाज जाति के विरोध की राजनीति में नहीं अपितु जातीय समरसता की राजनीति में है , एक बार समरसता आ जाने पर जाति स्वयं ही विलीनीकरण की दिशा में बढ़ने लगेगी , पर क्या हमारी राजनीतिक व्यवस्था ने सचेतन रूप से इस दिशा में कोई कार्यक्रम जैसे अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन , सहभोज आदि प्रारम्भ किया , शायद नही | इसके विपरीत स्थिति में जातिगत विभेद को बनाए रखना ही राजनीतिक सफलता की कुंजी बन जाती है | परिणामतः सामाजिक स्तर पर तो यह विभेद कम होता दिखाई पड़ता है पर राजनीतिक स्तर पर बढ़ता ही जाता है |
ध्यान रहे एक बार सत्ता पा जाने पर दलित तकनीकी रूप से दलित नहीं रह जाता अपितु समर्थ हो जाता है , वह सत्ता का स्रोत ,उसका अधिष्ठाता हो जाता है और उसे अपना व्यवहार भी इसी के अनुरूप नियोजित करना चाहिये | ऐसी स्थिति में उसे स्वयं का प्रसार कर खुद को वंचित वर्ग से जोड़ लेना चाहिये क्योंकि सत्ता की प्राप्ति के बाद उसे बनाए रखना ही सबसे महत्वपूर्ण होता है और केवल सहमति ही है जो लोकतंत्र में सत्ता को स्थायी बनाए रखने का कार्य करती है अन्यथा जनता भ्रष्टाचार के उस केंद्र को चुन लेगी जो तात्कालिक रूप से उसे अपने लिए अधिक लाभप्रद जान पड़ता है और शायद यही हुआ भी |
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