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“पब्लिक मैन्ड़ेट” से “सेन्स आँफ द हाउस” तक

अभिकथन
अभिकथन
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इतिहास गवाह है कि कोई भी आन्दोलन जिसमे एक निश्चित स्तर तक जनसहभागिता दिखाई देती हो , अपने अंतिम निष्कर्ष में ना तो पूर्णतया सफल कहा जा सकता है और ना तो पूर्णतया असफल | असल में ” जनसहभागिता ” का प्रत्यक्ष होना ही स्वयं में इतनी अधिक पवित्र और लोकतांत्रिक परिघटना है कि एक बार उसका उभार हो जाय तो वह व्यवस्था पर कुछ न कुछ सकारात्मक प्रभाव अवश्य छोड़ जाती है |

इस दृष्टि से देखा जाय तो श्री अन्ना हजारे द्वारा छेड़े गए आन्दोलन ने अभी तक कितनी सफलता अर्जित की और कितनी असफलता यह एक अलग प्रश्न है पर इतना तो निश्चित है कि इस आन्दोलन ने भारतीय राजनीति के सामने कुछ ऐसे प्रश्न खड़े कर दिए है जो अभी तक सतह के नीचे ही दबे हुए थे और अभी तक अपने नग्न और मुखर रूप में हमारे सामने नहीं आये थे |

कुछ ऐसे प्रश्न जिनके सही उत्तर प्राप्त हो जाने पर हम एक आदर्श लोकतांत्रिक प्रतिमान विकसित कर सकने में सफल हो सकते है पर सही उत्तर ना मिलने की दशा में पतन की ओर भी अग्रसरित हो सकते है |

आज जो प्रश्न भारतीय राजव्यवस्था के समक्ष उठ खड़े हुए है वे एक अवधारणा के रूप में लोकतांत्रिक व्यवस्था को मथने वाले शाश्वत और स्वाभाविक प्रश्न है | ये प्रश्न है – विधिक संप्रभुता या संसदीय संप्रभुता और लोक संप्रभुता के आपसी समन्वय और सबंध के , विधिक इच्छा और लोक इच्छा के संतुलन के तथा वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की सीमारेखा के | इन प्रश्नों के हल हमारी व्यवस्था को शीघ्रातिशीघ्र खोजने होगे | भारतीय लोकतंत्र का आगामी भविष्य बहुत कुछ इन प्रश्नों के हल पर ही निर्भर करता है |

पिछले लगभग एक साल से पूरे देश की जनता यह सुन रही है कि क़ानून बनाना संसद का काम है , उसे अपना काम करने दिया जाय , कि विधायिका पर अनावश्यक दबाव डालना उचित नहीं है | संसद विधियों के निर्माण का काम सड़क पर बैठे कुछ लोगो के इशारे पर नहीं करेगी – आदि , आदि |

संसदीय संप्रभुता और विशेषाधिकारो का पूर्ण सम्मान करते हुए मै यह कहना चाहुँगा कि ऐसे लोग संभवतः संसदीय व्यवस्था को ” पांच वर्ष की व्यभिचारिता ” समझने की भूल कर रहे है | ( जैसा कि प्रसिद्ध ब्रिटिश विचारक और राजनेता हेराल्ड जे॰ लास्की ने अमेरकी प्रणाली के विषय में कहा था | ) संभवतः अमेरकी प्रणाली से अत्यधिक प्रभावित हमारे शाशकगण संसदीय व्यवस्था और अध्यक्षीय व्यवस्था के बीच का अंतर विस्मृत कर रहे है | संसदीय व्यवस्था का यह मतलब नहीं होता कि जनादेश पा जाने के नाम पर जो चाहे वो कर लेने की छूट दे दी जाय अथवा सत्ता बनाये रखने की तिकडमो को लोकतांत्रिक प्रक्रिया कहने की सुविधा प्रदान कर दी जाय | हर हालत में उन्हें लोक इच्छा का सम्मान करना ही होगा | शायद लोहिया जी ने इसी बात को ध्यान में रख कर कहा था कि – ” ज़िंदा कौमे पांच साल इंतज़ार नहीं करती | ” पर खेद की बात है कि लोहिया के सारे चेले जो पूरे उत्तर भारत में विधमान है इस क्रांतिकारी उद्घोष को विस्मृत कर चुके है |

निश्चित रूप से वैधानिक संप्रभुता या व्यवहारतः संसदीय संप्रभुता ( जिसे क़ानून बनाने , उसमे संशोधन करने अथवा उसे रद्द करने का अधिकार हो ) एक सुस्थापित और मान्य सिद्धांत है परन्तु संसदीय लोकतंत्र का अनुसरण करने वाले राज्य होने के नाते हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि वैधानिक या कानूनी संप्रभुता के पीछे लोक संप्रभुता ( जिसे लोक नियंत्रण कहना अधिक व्यवहारिक होगा ) भी होती है जिसकी इच्छा के आगे कानूनी सप्रभु को भी नतमस्तक होना पड़ता है | जैसा कि ब्रिटिश संविधान के सर्वाधिक प्रमाणिक टीकाकारो में से एक, प्रसिद्द संविधानविद डायसी ने भी कहा था -” जिस संप्रभु को वकील लोग मानते है उसके पीछे एक दूसरा संप्रभु भी रहता है | इस संप्रभु के आगे वैधानिक संप्रभु को भी सर झुकाना पड़ता है | ” इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए प्रसिद्ध राजनीतीविद् गार्नर कहते है – ” कानूनी प्रभुसत्ता के पीछे एक दूसरी प्रभुसत्ता भी है जो कानूनी रूप से अज्ञात तथा असंगठित है और जिसमे इतनी शक्ति नहीं होती कि वह अपनी हर इच्छा को क़ानून के रूप में व्यक्त कर सके परन्तु फिर भी वह ऐसी सत्ता है जिसके आगे कानूनी प्रभुता को सर झुकाना पड़ता है | ” इसीलिए ” मार्डन डेमोक्रेसीज ” जैसी प्रसिद्ध पुस्तक के लेखक लार्ड ब्राइस साधिकार घोषणा करते है कि ” आधुनिक युग में लोक संप्रभुता लोकतंत्र का आधार बन चुकी है | ” भारत का संविधान भी जब अपनी प्रस्तावना में यह उद्घोष करता है कि -” हम भारत के लोग …………………… इस संविधान को अंगीकृत , अधिनियमित और आत्मर्पित करते है |” तो उसका अभिप्राय भी लोक संप्रभुता से ही होता है | यही सहभागी लोकतंत्र का आदर्श है |

व्यवहारतः कहा जा सकता है कि लोक संप्रभुता का अर्थ शान्ति के समय लोकमत और संक्रमणकाल में क्रान्ति होता है |

यहाँ पर एक प्रश्न यह भी उठाया जा सकता है कि यह कैसे प्रमाणित होता है कि अन्ना और उनकी टीम लोकपाल के मुद्दे पर लोक इच्छा के संवाहक है | परन्तु अन्ना के नेतृत्व वाला नागरिक समाज जन इच्छा को नहीं दिखाता तो यह पता लगाना होगा कि फिलहाल इस मुद्दे पर लोक इच्छा कहा से निःसृत हो रही है |आज की स्थिति में संसद लोक इच्छा को प्रदर्शित करने दावा प्रस्तुत नहीं कर सकती , पिछले चालीस – पचास सालो से लंबित मामले पर वह यकायक सदय हो जायेगी यह कैसे मान लिया जाय | मामला अब क़ानून बनाने मात्र तक सीमित नहीं है | भारत की बदली हुई आर्थिक सामाजिक स्थितियाँ व्यवस्था परिवर्तन , राजनीतिक संस्कृति में परिवर्तन की मांग कर रही हैं | दुनिया का सर्वाधिक युवा देश इस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है और संसद यहाँ एक प्रतिक्रांतिकारी शक्ति की भूमिका निभा रही है | संसद की स्थति पर कवि धूमिल की यह पंक्तियाँ अत्यंत सटीक है -कुर्सिया वही है \ सिर्फ टोपिया बदल गयी है \ सच्चे मतभेद के आभाव में \ लोग उछल उछल कर \ अपनी जगहे बदल रहे है \ चढ़ी हुई नदी में \ भरी हुई नाव में \हर तरफ विरोधी विचारों का दलदल है \सतहों पर हलचल है \ नए नए नारे है \ भाषण में जोश है \ पानी ही पानी है \पर की – च – ड़ खामोश है | यह भी ध्यान रखना होगा कि लोक इच्छा वास्तव में जनसंख्या ( population ) की नहीं अपितु जनता ( people ) की इच्छा होती है , संख्या बल यहाँ विशेष महत्व नहीं रखता | इसी संसद ने १९९७ में राजग प्रथम सरकार को ” पब्लिक मैन्ड़ेट ” का नारा दे कर गिरा दिया था और आज उसी गिरने वाली सरकार के एक सदस्य ” सेन्स आफ द हाउस ” के मुहाविरे का प्रयोग कर रहे है | इस परिवर्तन का क्या अर्थ निकाला जाय | पुनः धूमिल के ही शब्दों में क्या ” अपने यहाँ जनतंत्र एक ऐसा तमाशा है जिसकी जान
.मदारी की भाषा है | क्या यह संविधान को राजनीतिज्ञों के हाथ का खिलौना बनने देना नहीं है | क्या यह संसदीय लोकतंत्र के उस दोष का अनुचित लाभ उठाना नहीं है जहा कार्यपालिका और विधायिका में पूर्ण पृथक करण नही होता |

वास्तव में लोक संप्रभुता एक अमूर्त धारणा है ( अमूर्तता कोई दोष नहीं है ) जिसे स्वयं को व्यक्त करने के लिए एक चेहरे की आवश्यकता होती है , यदि वह चेहरा अन्ना नहीं है तो क्यों माननीय प्रधानमन्त्री ने उन्हें लिखित आश्वाशन दिया , क्यों उन्हें सैल्यूट किया , और क्यों संसद ने उनकी मांगो पर विचार के लिए विशेष सत्र चलाया | अन्ना को वैधता तो स्वयं संसद और सरकार ने दी है और वह भी सहज भाव में नहीं बल्कि जनदबाव के कारण और मोल – भाव कर के | आज जब उन पर विशेषाधिकार हनन के प्रस्ताव की बात है तो क्या यह ऐसा नहीं है की जब आपने उन्हें मजबूत देखा तो प्रशंसा की और जब कमजोर देखा तो मजम्मत करने लगे | एक छोटे से समयान्तराल में संसद एक ही व्यक्ति की प्रशंसा भी करती है और फिर उसे एक बहुप्रचलित मुहाविरे और फिल्मी संवाद के प्रयोग के आधार पर अपने अपमान का दोषी भी पाती है |

वास्तव में यह पता लगाना सरकार और उसके नुमाइंदो का कार्य है की जनभावना कहा से , और कैसे निःसृत हो रही है और अगर वह यह पता लगाने में सफल हो जाते है तो लोकतंत्र का सही स्वरुप निखर कर सामने आता है |

अन्ना और उनकी टीम जनइच्छा की प्रतीक भर है और वह इच्छा सही और कठोर लोकपाल क़ानून के पक्ष में है | ना तो अन्ना और ना ही जनता संसद के खिलाफ है पर मौजूदा संदर्भो में वह उसके साथ भी नही है |संसद और सरकार को जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से वैधता दी गयी है पर जनता अभी उससे प्रसन्न नहीं है | उसे लगता की उसके नेताओं ने एक अलग तरीके की सामंतशाही खड़ी कर ली है , अपना एक अलग वर्ग बना लिया है और परस्पर दुरभिसंधि कर के एक दूसरे की रक्षा का कार्य कर रहे है | ठीक उसी प्रकार जैसे बड़े व्यापारी एक दूसरे से मिल कर एकाआधिकार कायम कर लेते है | इस दुरभिसंधि के विरुद्ध जनता को एक नायक की तलाश है| यदि मौजूदा राजनीतिक संवर्ग से कोई व्यक्ति इस कार्य के लिए सामने आता है तो जाती , धर्म और वर्ग की सीमाओं के परे उसे अपार जनसमर्थन प्राप्त होगा अन्यथा अन्ना और उनकी टीम को उनकी शुचिता की सीमाओं में जनसमर्थन पाने से कोई भी रोक नहीं सकता|
{ क्रमशः}

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