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संवेदना

अभिकथन
अभिकथन
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वेदना संवेदना बीते दिनों की बात है ,
बढ़ते हुए बाजार में सब बन गया व्यापार है
कौन देगा मूल्य मेरी भावनाओं का अधिक ,
आज मेरा आत्म खुद उत्पाद बन तैयार है ,
और यदि अव्मूल्यित हो कोई मुझसे भी अधिक ,
सूचकांको में उसी की वृद्धि के आसार हैं |

बाजार में अपनी असलियत को कभी कहना नहीं ,
मूर्ख ! यह सब सूत्र ही व्यापार के आधार हैं,
दो रुपए के चिप्स में दस रुपए की हवा भर ,
बेच दो सोलह रुपए में बाजार अब उदार है ,
झूठ के उत्पाद को विज्ञापनों की चमक से ,
एक मृगतृष्णा बना दो आधुनिक व्यापार है |

साधनों की होड़ की ऐसी अँधेरी दौड़ में ,
साध्य की मीमांसा का प्रश्न ही बेकार है ,
व्यक्ति और उपभोक्ता का जैसे पृथक अस्तित्व हो ,
व्यक्ति का स्वातंत्र्य अब उपभोक्ता पर भार है ,
इस बड़े बाजार का परमात्मा कोई नहीं ,
बिक रहा परमात्मा भी अब सरे बाजार है |

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