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भारत के प्रथम स्वातंत्र्य – समर में स्त्रियों की भूमिका

अभिकथन
अभिकथन
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” बुंदेलो – हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी \ खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली थी ” आज मई के इस पावन माह में जब हम १८५७ की क्रान्ति की एक और वर्ष गाँठ मना रहे है तब श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित इन पंक्तियों के पुर्नपाठ की आवश्यकता प्रतीत हो रही है |वास्तव में उपरोक्त पंक्तिया बुंदेलखंड के एक लोकगीत से प्रेरित हैं जिसे श्रीमती चौहान ने भी ” हमने सुनी कहानी है ” कह कर स्वीकार किया है | मूल गीत कुछ इस प्रकार है –
खूब लड़ी मर्दानी , अरे झाँसी वारी रानी
बुरजन-बुरजन तोप लगा दई, गोली चलाये असमानी |
अरे झाँसी वारी रानी ………..
सबरे सिपइन को पैरा जलेबी , आप चबई गुडधानी |
अरे झाँसी वारी रानी ………
छोड़ मोरचा लसकर को दौरी ढ़ूंढ़ेर मिले नहीं पानी |
अरे झाँसी वारी रानी ……….
किन्तु यहाँ मूल तथ्य यह है कि श्रीमती सुभद्रा कुमारी द्वारा जब यह पंक्तिया लिखी गई तब वह सिमोन के इस वाक्य को ही पुर्नव्याख्यायित कर रही थी कि ” स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बनायी जाती है ” और ‘लोक’ भी इसे ही प्रमाणित कर रहा है |
तो क्या १८५७ की लड़ाई वास्तव में एक मरदानी लड़ाई थी और अगर थी तो संभवतः यह वास्तविक जनक्रांति नहीं थी क्योंकि तब आधा भारत तो इससे अलग ही था | किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि जब बादशाहे हिन्दुस्तान गमगीन अल्फाज में यह मर्सिया गा रहा था कि – ” न किसी कि आँख का नूर हूँ \ न किसी के दिल का करार हूँ \ जो किसी के काम न आ सका \ मै वो एक दश्ते गुबार हूँ ” उसी समय सुदूर झाँसी में बैठी एक स्त्री सिंह गर्जना करती हुई यह एतिहासिक वाक्य कह रही थी – ” मै अपनी झाँसी नहीं दूगी ” और जैसा कि विनायक दामोदर सावरकर लिखते है –
” संसार के सामने दृढ़तापूर्वक कहा गया ‘नहीं’ शब्द बहुत कम आया है | भारत के उदारमना लोगो के मुह से अब तक यही एक शब्द सुनाई देता आया है ‘मै दूँगा’ किन्तु लक्ष्मीबाई ने यह विलक्षण जयघोष किया – ‘ मै नहीं दूँगी ‘ | काश यह आवाज भारत के हर मुँह से गूँजी होती ”
यदि इतिहास के पन्नों को सावधानी से पलटा जाय तो एक अलग ही तस्वीर सामने आती है और शुरुवात से ही जंगे आजादी में महिलाओं की व्यापक हिस्सेदारी दिखाई देती है |
भारत के राष्ट्रीय स्वाभिमान और अस्मिता के संरक्षण हेतु महिला प्रयासों का श्रीगणेश ( आधुनिक काल में ) रानी अहिल्या बाई होल्कर
( १७२५ – १७९५ ई ) द्वारा माना जा सकता है | मालवा के एक छोटे से राज्य की इस संरक्षिका ने सीमित आर्थिक संसाधन होते हुए भी पूरे भारत में हजारों विधालयो , मंदिरों और धर्मशालाओ का निर्माण कराया | वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर को आज जिस रूप में हम देखते है वह उन्हीं की देन है | अपने जीवन काल में यह पुण्यश्लोका स्त्री देवी की भाति पूजी जाती थी | भारत की बहुसंख्यक जनता धर्म का आधार ले कर जीवन व्यतीत करती है | ऐसे समय में जब उसके चारो ओर अन्धेरा व्याप्त था , लोग भुखमरी , अकाल और अशिक्षा के शिकार थे , अहिल्या बाई के यह कार्य उसके लिए आशा – दीप की भांति थे | भाद्र पद कृष्ण चर्तुदशी को आज भी उनकी याद में ” अहिल्योत्सव ” मनाया जाता है |
इसी क्रम में भीमा बाई होल्कर ( 1817 ) का नाम भी आता है जिन्होंने ब्रिटिश संरक्षण वादी मेल्कोम के विरूद्ध युद्ध छेड़ा और गोरिल्ला युद्ध में उसे पराजित किया |
चित्तूर की रानी चेनम्मा ( १८२४ ) का नाम कैसे विस्मृत किया जा सकता है | उन्हे भारत की प्रथम महिला क्रांतिकारी के रूप में जाना जाता है | कर्नाटक के बेलगाम में अपनी छोटी सी रियासत चित्तूर में पति और पुत्र की मृत्यु के बाद जब उन्होंने दत्तक पुत्र शिवलिंग्प्पा को गद्दी पर बैठाना चाहा तो उन्हें कंपनी की व्यपगत नीति का सामना करना पडा | रानी ने अपनी छोटी सी सेना के माध्यम से कंपनी की अनैतिक व्यपगत नीति का डट कर सामना किया |
इस तरह यदि स्त्री सहभागिता के परिप्रेक्ष्य में देखे तो १८५७ ई॰ के काफी पहले से मुक्ति हेतु भारतीय स्त्रियों की तीव्र आकांक्षा परिलक्षित होती है |
पुनः विद्रोह काल में भी ऐसे कई नाम सामने आते है जिन्होंने क्रान्ति की ध्वजा उठाये हुए मृत्यु के अवगुंठन को स्वीकार किया | रानी लक्ष्मी बाई , बेगम हजरत महल , रानी जीनत महल आदि के नाम तो प्रासिद्ध है ही मैना , अजीजन बाई , झलकारी बाई , ऊदा देवी , रानी अवन्ती बाई आदि अनेक नाम ऐसे भी है जो कम चर्चित रहे है | हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि क्रान्ति सम्बन्धी दस्तावेजो और विवरणों को समाप्त कर देने की अंग्रेजी नीति के कारण अनेक नाम ऐसे भी है जिनके ऊपर काल की धूल पड़ी है और जिनके नाम से हम आज परिचित भी नहीं है | फिर भी लोकआख्यानों और छुटपुट विवरणों से इनके बारे में कुछ संकेत अवश्य प्राप्त होते है | इन हुतात्माओ के बारे में बाबा नागार्जुन के शब्दों में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि –
जो नहीं हो सके पूर्णकाम ,
मै उनको करता हूँ प्रणाम ,
जिनकी सेवाए अतुलनीय ,
पर विज्ञापन से रहे दूर ,
प्रतिकूल परिस्थितियों ने जिनके ,
कर दिए मनोरथ चूर -चूर
उनको प्रणाम |
जैसा कि स्वाभाविक है १८५७ की महिला क्रान्तिकारियो में सर्वाधिक अग्रणी और दैदिप्यमान नाम रानी लक्ष्मी बाई का है | एक साधारण बालिका ‘ छबीली ‘ से रानी लक्ष्मी बाई बनने की कथा तो आज इतिहास में अमर हो ही चुकी है पर लक्ष्मी बाई की महत्ता इस बात से भी है कि उन्होंने पुरुष आधिपत्य वाले समाज में महिला शक्ति का ऐसा प्रतिमान स्थापित किया कि कट्टर शत्रु ह्यूरोज़ को भी उन्हें ‘ एकमात्र मर्द ‘ कहना पडा | जिस सामंती समाज में रानी ने संघर्ष किया उसमे उनकी महानता इस बात में भी है कि उन्होंने सामंती समाज में प्रचलित विभाजनो – संभ्रांत , साधारण , दलित , हिन्दू ,मुस्लिम , वेश्या – से परे स्त्री को केवल एक स्त्री के रूप में देखा | वे जाति , धर्म , सम्प्रदाय और अपमानजनक पेशे में फंसी स्त्री को सामजिक भूमिका प्रदान करने का कार्य करती है | लक्ष्मी बाई तमाम ऐसी स्त्रियों की फौज खड़ी करती है और उन स्त्रियों को सैनिक शिक्षा मुहैया कराती है | साधारण स्त्रियों को आत्मसम्मान के साथ जीना सिखाती है जिसमे उनकी दासियां सुन्दर – मुन्दर , काशी के अलावा कोरिन झलकारी बाई शामिल है| उन्होंने नर्तकी मोती बाई , वेश्या पुत्री जूही को भी देश सेवा और युद्ध की प्रेरणा दी | (सन्दर्भ – बी॰ एल ॰ वर्मा , झाँसी की रानी ) झाँसी में और विशेषतः विन्ध्य खंड में साधारणतः स्त्री स्वतंत्रता और स्वायत्तता लक्ष्मी बाई के नाम से जुड़ी है | पुनः सावरकर लिखते है –
“विश्व में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जो ऐसी देवी को अपनी कन्या और रानी कहने का अधिकारी हो | इंग्लैंड के भाग्य में यह सम्मान अब तक नहीं बदा है |इटली की क्रांति में ऊँचे आदर्श और शौर्य का परिचय मिलता है फिर भी इतने वैभव काल में इटली एक भी ऐसी लक्ष्मी को पैदा नहीं कर सका | ”
रानी लक्ष्मी बाई के साथ वीरांगना झलकारी बाई का नाम भी जुड़ा है | अकेले ही चीते को मार ड़ाल सकने की सामर्थ्य रखने वाली झलकारी का विवाह पूरन कोरी नामक झाँसी के एक वीर सैनिक से हुआ था | रानी झाँसी से संपर्क में आने के पश्चात वह झाँसी की महिला सैनिक टुकड़ी ‘दुर्गा दल ‘ में शामिल हो गयी और बाद में उसकी सेनापति भी बनी |झलकारी बाई ने महारानी के झाँसी से कालपी प्रयाण के समय उनके रक्षा कवच का कार्य किया था और रानी का छद्मवेश धारण कर के आंग्ल सेना को काफी समय तक भुलावे में रखा | राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त के शब्दों में –
” वह तो झाँसी की झलकारी थी ,
जा कर रण में जो ललकारी थी ,
है इतिहास में झलक रही ,
वह भारत की ही नारी थी ”
झाँसी में क्रान्ति की जिस ज्वाला को प्रज्वलित करने का कार्य रानी लक्ष्मी बाई ने किया था उसे लखनऊ में धधकाने का कार्य बेगम हजरत महल ने किया | ब्रिटिश पत्रकार विलिअम रसेल जो क्रान्ति का प्रत्यक्षद्रष्टा था ने हजरत महल को ‘ पति से अच्छा मर्द ‘ कह कर संबोधित किया है | अपनी डायरी में रसेल लिखता है –
” बेगम ने अपनी महान शक्ति और योग्यता का जो परिचय दिया है उसने सम्पूर्ण अवध को ही अपने पुत्र के पक्ष में उठा कर खडा कर दिया और सरदार व सामंत भी उसके प्रति पूर्ण निष्ठावान थे | हम उसके पुत्र के वैध उत्तराधिकारी होने में संदेह कर सकते है , किन्तु जमींदार जो वास्तव में इस प्रश्न के सही निर्णायक कहे जा सकते है , निसंकोच ही बिजरीस कदर को उत्तराधिकारी स्वीकार करते थे | बेगम ने हमारे विरुद्ध अखंड युद्ध की घोषणा की है | इन रानियो और बेगमो के शक्ति पूरित चरित्र से ऐसा लगता है कि इन्हें अपने रनिवासो और हरमो में प्रचुर मानसिक शक्ति प्राप्त होती थी और वे किसी भी परिस्थिति में योग्य पग उठा सकने में समर्थ थी | ”
( रसेल की डायरी , पृष्ठ २७५ )
हजरत महल को न केवल अंग्रेजो से बल्कि महल की अंदरूनी घात से भी संघर्ष करना पडा | केवल हजरत महल और रानी मानवती (राजा मान सिंह की बहन ) ही इस संघर्ष में शरीक हुई | हरम कि सदस्यों सरफराज बेगम और शैदा बेगम द्वारा छोड़े गए वृत्तांतो से इस विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है | जब भारतीय सेना हारने लगी तो हजरत महल को और अधिक खरी – खोटी सुननी पड़ी | सरफराज बेगम लिखती है – ” तुम्हारा बेटा बादशाह हुआ , मुबारक हो | मगर हम सब बेवारिस हुए जाते है | फिर बादशाह और महलात वगैरह जो कलकत्ता में है , ज़िंदा बचेगे या फाँसी दे दिए जाएगे | तुम ऐसी सल्तनत को चूल्हे में डालो | ”
जिम्मेदारी के साथ – साथ हजरत महल के हाव – भाव भी बदले | उन्होंने शहर के बाहर के सूबो को भी साथ में संगठित किया | जगह जगह तकरीरें दी | खासो आम में बगावत की चिंगारी फैलाने की कोशिश की | पर अंग्रेजो ने लखनऊ पर पुनः कब्जा कर लिया , बेगम ने फिर भी हार नहीं मानी | उन्होंने बाहर रह कर अपना प्रहार जारी रखा | अनेको लोग उनके साथ जुड़े | वह बिना आराम – बिना मुकाम विद्रोह को अपने साथ लेती गयी | राजा जयमाल सिंह , मान सिंह , मीर फिदा हुसैन , नाजिम , अब्दुल हादी खाँ इत्यादि लोग उनके साथ हो लिए | तुलसी पुर की रानी ने भी साथ दिया |
प्रख्यात साहित्यकार स्व॰ अमृत लाल नागर ने लोकवृत्तांत इकट्ठा कर के जो चरित्र बनाया है उसे माने तो बेगम में आत्म विश्वास ,ओज और संकल्प का समन्वय था | उनकी यात्रा लक्ष्य बद्ध थी, वह जगह – जगह सहयोग की गुजारिश करती , कहीं अधिकार पूर्वक किसी को भोजन छोड़ कर युद्ध में सहभाग करने के लिए प्रेरित करती | जमींदार बलभद्र सिंह तो दुल्हन ले कर लौट रहे थे कि बेगम ने उन्हें बुला भेजा | स्थान – स्थान पर उनकी यात्रा के प्रसंग मौजूद है | सौ वर्ष से अधिक आयु वाले एक बुजुर्ग का कहना है – ” बेगम पनरे कद की रहीं | कोई से पर्दा नाहीं किहिन |………………..जेस अउरत के शील धरम होत है वएसी रही | देउता रही | ” एक तरफ बेगम के लिए इतना आदर और सम्मान तो दूसरी तरफ हरम की एक सदस्या लिखती है – ‘ मैं नहीं समझती थी कि हजरत महल ऐसी आफत की परकाला है | खुद हाथी पर बैठ कर , तिलंगो के आगे – आगे , फिरंगियों से मुकाबला करती है | ‘ दिसंबर ५८ तक वह हरिदत्त सिंह के बाड़ीगढ़ से क्रान्ति का संचालन करती रही | विक्टोरिया की घोषणा के बाद भी देशवासियों को ललकारती रही और आखिरकार बिजरीस कदर के साथ नेपाल चली गयी | – ( त्रिपुरारी शर्मा ; अजीजुन्निशा )
चार्ल्स बाल अपनी पुस्तक ‘ इंडियन म्यूटनी ‘ में एक घटना का जिक्र करते है जब बेगम ने छः माह से कैद अंग्रेज स्त्रियों को बागियों द्वारा मारे जाने से बचाया था | ये बागी कोलिन द्वारा किये गए लखनऊ के नरसंघार का बदला लेना चाहते थे | इस प्रकार बेगम हजरत महल , नाना साहिब पेशवा से अपनी नैतिक श्रेष्ठता सिद्ध कर देती है क्योकि नाना साहिब ने सतीचौरा और बीबी गढ़ में ऐसे हत्या काण्ड की अनुमति दी थी या उसे रोक नहीं पाए थे | अमृत लाल नागर की कृति ‘ ग़दर के फूल ‘ से एक उत्साहजनक तथ्य यह भी ज्ञात होता है कि हजरत महल की सेना में हरा झंडा ले कर लड़ने वाले कई हिन्दू-मुस्लिम सैनिक एसे भी थे जो १८५३ ई॰ में रामजन्म भूमि सम्बन्धी लड़ाइयों में आपस में लड़े थे | यहाँ अरुणा आसिफ अली के उस कथन का उल्लेख करना समीचीन होगा जो उन्होंने १९४६ ई॰ के नौसेना विद्रोह के अवसर पर कही थी – ” वास्तविक हिन्दू -मुस्लिम एकता तभी दिखाई देती है , जब उनका रक्त साथ – साथ बहे| ”
हजरत महल की बांदी ऊदा देवी पासी का नाम भी इस १८५७ के क्रान्ति युद्ध में अविस्मरणीय है | सिकंदर बाग़ ( लखनऊ ) की लड़ाई में ऊदा पुरुष वेश में गोला – बारूद व बन्दूक ले कर एक पेड़ पर बैठ गयी और अकेले ही छत्तीस ब्रिटिश सैनिको को मार कर अंततः वीर गति को प्राप्त हुई | इसी क्रम में नाना साहिब पेशवा की पुत्री मैना का नाम भी आता है | बिठूर में वह अंग्रेजो द्वारा बंदी बना ली गयी किन्तु उसने क्रान्तिकारियो का कोई भेद अंग्रेजो को नही बताया अंत में उसे दंड स्वरुप ज़िंदा ही जला दिया गया |
१८५७ ई की महिला हुतात्माओ की इसी कड़ी में अजीजुन्निशा का नाम भी आता है | अजीजुन्निशा का लोकप्रिय नाम अजीजन था | वह एक वेश्या पुत्री थी और उसका जन्म लखनऊ में हुआ था | नृत्य और संगीत में प्रवीण इस देशभक्त स्त्री ने अपना कार्य क्षेत्र कानपुर को बनाया |कानपुर में उसका सरोकार व्यापारियो और छावनी के सैनिको से था | यूं तो वह खुद को कल्लू या कहलू नामक व्यापारी की उपपत्नी बताया करती थी पर उसका असल जज्बाती रिश्ता शमशुद्दीन सवार नामक सैनिक से था |उसी के जरिये वह देशी सैनिको के हाल और पशोपेश से जुड़ गयी |जब शमशुद्दीन बागी हुआ तो अजीजन का कोठा क्रान्ति का अड्डा बन गया | अजीम उल्ला खान ,मोहम्मद अली और बाग़ी सिपाहियों का वहाँ निरंतर आना जाना होने लगा | इस बात की शिकायत अंग्रेजो तक पहुची पर अजीजन हमेशा अपनी चतुराई और सफाई की वजह से सच्चाई को छिपा ले जाती थी | ग़दर के दिनों में कानपुर में घटनाओं का क्रम तेजी से बढ़ा और अजीजन भी क्रान्ति-कार्यो में प्रत्यक्षतः सक्रिय हो गयी गयी | सावरकर लिखते है –
” कानपुर की महिलाओं ने अपना जनाना स्वरुप छोड़ कर समर भूमि में प्रवेश किया था | पर उन सारे युवा पुरुषो और मर्दाना स्त्रियों को एक बिजली अपनी चमक से लज्जित कर रही थी | यह बिजली और कोई नहीं वेश्या अजीजन थी | उसने अपने माशूक वेश को लश्करी पेशे में ढाल लिया था | गाल पर लाली चढी थी , होठो पर हास्य था और वह घोड़े पर सवार थी | तोपखाने के सिपाही उसकी मुद्रा देख के अपनी थकान भूल जाते थे | ”
गद्दार नानक चन्द अपनी डायरी में लिखता है – ” सशस्त्र हो कर अजीजन बिजली सी दमक रही थी | कभी – कभी थके और घायल सिपाहियों को वह मिठाई बाटती रास्ते में खड़ी रहती | ”
अजीजन ने हथियार बंद औरतो का एक दल तैयार किया और मेंहदी रचे हाथ संघार कार्य करने लगे| शमशुद्दीन की मौत के बाद भी वह क्रान्ति कार्य में संलग्न रही | अभिनय में , वेश बदलने में दक्ष महिला पलटन ने अंग्रेजो के छक्के छुडा दिए | अजीजन अंततः गिरफ्तार हुई हैवलाक ने अजीजन को माफी देने का प्रस्ताव किया किन्तु स्वाभिमानी अजीजन के इनकार कर देने पर उसे फांसी दे दी गयी | कुछ इतिहासकार उसे लापता भी मानते है |
त्रिपुरारी शर्मा लिखते है की लक्ष्मी बाई , हजरत महल और अजीजन बाई – पत्नी , उपपत्नी और अनब्याहता – तीनो ने अपनी अपनी तरह से रणनायिका की मिसाल कायम की | तीनो ही सामान्य परिवारों से थी और गंगा – जमुनी संस्कृति के उस इलाके से थी जिसे आज भी बीहड़ माना जाता है | लक्ष्मी बाई ने वीरगति प्राप्त की , हजरत महल बेवतन हो गयी और अजीजन आम सिपाही की तरह गुमशुदा ……….,,,,,,,,,प्रश्न पूछा जा सकता है कि औरतों की यदि इतनी भागीदारी थी तो विद्रोह के मूल भाव पर क्या असर पडा ? प्रश्न प्रासंगिक है पर इसका उत्तर ढूढ़ पाना बहुत ही कठिन | इतने मर्दों के बीच इन औरतों ने मर्दाने खेमे के बीच अपनी अलग पहचान बनायी – यह एक तरह की स्पष्ट उपलब्धि है |
१८५७ ई॰ की क्रान्ति में वेश्याओं ने सक्रिय भूमिका निभायी थी | वे मेरठ की वेश्याए ही थी जिन्होंने तटस्थ सिपाहियों को चूडिया भेट कर और उन पर ताने कस कर बूढ़े भारत को फिर से नयी जवानी दी थी | वन्दना मिश्र अपने एक लेख में लखनऊ की एक वेश्या हैदरी बाई का जिक्र करती है , जिसके कोठे पर शहरकोतवाल महमूद खाँ की आमदरफ्त थी | उससे प्राप्त जानकारियां हैदरी बाई क्रान्तिकारियो तक पहुँचा देती थी | उस पर शक गहराता इससे पहले ही हैदरी बाई पेशा छोड़ कर रहीमी की महिला पलटन में शामिल हो गयी |
तवायफो की भूमिका के कारण ही क्रान्ति के दमन के बाद सरकार ने इस समुदाय को अपने लिए खतरा मान के उस पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध थोप दिए | १८६४ के क़ानून में उन्हें यौन रोगों का संवाहक मान कर उन पर नियमित पड़ताल लाद दी गयी | वह पेशा जो अब तक अपनी कलाकारी और शाश्त्रीयता के लिए जाना जाता था अब एक गलीज गाली बन कर रह गया |
भारत की क्रान्तिधार्मा स्त्रियों की इस उदात्त परम्परा में एक नाम रानी अवन्ती बाई लोधी का भी आता है | अवन्ती बाई रामगढ़ (राजस्थान) के अधिपति राजा विक्रमादित्य की पत्नी थी | पति की मृत्यु के बाद जब राज्य का कोई उत्तराधिकारी शेष न बचा तो कंपनी सरकार ने इस राज्य को भी अपनी हड़प नीति के अंतर्गत लाना चाहा | इस दशा में रानी ने चार हजार सनिको की टुकड़ी के साथ युद्ध ( खीरी का युद्ध ) लड़ा और वीरोचित गति का वरण कर के इतिहास में अपना नाम सुरक्षित कर गयीं |
यहाँ पर रानी राबमोनी का भी नामोल्लेख करना उचित होगा |इन्होने क्रान्ति में सीधे भाग तो नहीं लिया किन्तु उसी काल – खंड में जनचेतना फैलाने में अपना योगदान अवश्य दिया | रानी कलकत्ता के एक छोटे से प्रांतर के जमींदार की पत्नी थी | पति कीई मौत के बाद जमीदारी का प्रबंध वे स्वयं करने लगी | इसी दौरान रानी राबमोनी का राष्ट्रवादी चरित्र तब उद्घाटित हुआ जब अंग्रेजी सरकार ने गंगा नदी के मत्स्य ग्रहण पर तथा दुर्गा पूजा के उत्सव पर शान्ति भंग के आरोप में प्रतिबंध लगा दिया | रानी ने इसका खुल कर विरोध किया और उनके साथ भारी जनसमर्थन देख कर सरकार को अंततः झुकना पडा और प्रतिबन्ध हटा लिए गए | रानी राबमोनी को उनके द्वारा स्थापित दक्षिणेश्वर के काली मंदिर और स्वामी राम कृष्ण परमहंस के साथ उनके आध्यात्मिक संबंधो के लिए भी जाना जाता है |
इस तरह हम देखते है की १८५७ की क्रान्ति में क्रान्तिधर्मा स्त्रियों की एक अविचल श्रृंखला मौजूद रही है | रानी टेक बाई, बैजा बाई , चौहान रानी , तापिस्वनी महरानी , देवी चौधरानी , महावीरी देवी , शीला रानी , रानी भवानी आदि अनेक नाम ऐसे है जिनका नाम छुटपुट रूप से दस्तावेजो में आता है पर और इनके विषय में व्यापक शोध की आवश्यकता है |सावरकर ने अपने इतिहास में वैदू महिलाओं का जिक्र किया है ( ट्रेवेलियन के हवाले से ) जो भारतीय घरो में वैधकीय दवाएँ देने और ज्योतिषीय परामर्श देने का कार्य करती थी |इन महिलाओं ने १८५७ की क्रान्ति में जन सामान्य तक क्रान्ति सन्देश पहुचाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी |
इस तरह हम देखते है न केवल १८५७ की क्रान्ति में अपितु उसके पहले से भारतीय स्त्रियों ने विदेशी शाशन से मुक्ति की तीव्र इच्छा दिखानी शुरू कर दी थी | सुन्दर लाल जी ने अपनी एतिहासिक पुस्तक ‘ भारत में अंग्रेजी राज ‘ में १८५७ की क्रान्ति का जो व्यापक चित्र प्रस्तुत किया है उस तरह की व्यापकता स्त्रियों के सहभाग के बिना आ ही नहीं सकती | १८५७ के सन्दर्भ में यह तथ्य और भी अधिक महत्वपूर्ण है की इसमें भारतीय समाज के तथाकथित निम्न वर्ग की स्त्रियों ने भी व्यापक रूचि दिखाई तत्कालीन समाज की जटिलता और रूढ़िवादिता के मद्देनजर इसे एक विशेष उपलब्धि कहा जा सकता है | प्रारम्भ से ही स्त्रियों की इस सहभागिता का ही सुपरिणाम था जिससे भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में भी स्त्रियों की व्यापक सहभागिता दिखाई दी और भारतीय गणराज्य के प्रारभ से ही स्त्रियों को मताधिकार और कानूनी बराबरी का दर्जा प्राप्त हो सका जिसे देने में बहुत से विकसित देशो यहाँ तक कि भारत पर राज करने वाले इंग्लैंन्ड ने भी दशको लगा दिए | आज उस महान क्रान्ति को हुए एक सौ पचास वर्ष से अधिक हो चुके है और समय एक बार फिर गुहार लगा रहा है कि उन आदर्शो की रक्षा के लिए जिनके लिए हमारे पूर्वजो ने अपना रक्त बहाया था -हम एक बार पुनः संगठित हो | इस लेख का अंत मै वी॰ डी॰ सावरकर के उस कवित्त से करना चाहुँगा जिससे उन्होंने अपने अविस्मरणीय परिपत्र ‘ओ मारटियर!’ ( हे हुतात्माओ !) का प्रारम्भ किया था –
स्वतंत्रता संग्राम आरम्भ हो एक बार,
पिता से पुत्र को पहुचे बार बार ,
भले हो पराजय यदा – कदा,
पर मिले विजय हर एक बार |

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