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आपातकाल – 1 : विनाश काले , विपरीत बुद्धिः

अभिकथन
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२५-२६ जून १९७५ , रात्रि ३.३० मिनट, दिल्ली यूनीवार्ता के पत्रकार श्री अरोड़ा अपना कार्य समाप्त कर के स्कूटर से घर की ओर जा रहे थे अचानक उन्हें एक पुलिस जीप तेजी से भागती हुई दिखाई दी | जिज्ञासावश उन्होंने स्कूटर जीप के पीछे लगा दी | जीप पार्लियामेंट थाने के पास जा कर रुकी और उससे पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये गए लोक नायक जय प्रकाश नारायण को उतारा गया | स्वातंत्र्योत्तर भारत के राजनीतिक इतिहास का एक काला दिन | तत्कालीन भारत के विराट राजनीतिक व्यक्तित्व लोकनायक जयप्रकाश नारायण को पुलिस सुबह होने का इन्तजार किये बिना रात के तीसरे पहर में गिरफ्तार कर लेती है | उन्हें बताया जाता है कि आज आधी रात के बाद से भारत में आपात काल लागू हो गया है | भाग्य की देवी भी इस घटना पर अपने तरीके से व्यंग कर रही थी | जे. पी. को गांधी शांति प्रतिष्ठानसे निरुद्ध किया गया और पार्लियामेंट थाने में रखा गया | इस घटना पर जय प्रकाश की पहली प्रतिक्रया इन एतिहासिक शब्दों में निःसृत हुई – ‘विनाश काले विपरीत बुद्धिः!’

इस घटना को १९७५ ई. में स्व . श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा ( यहाँ मैं श्रीमती गांधी की सरकार द्वारा – शब्दावली का प्रयोग जान-बुझ कर नहीं कर रहा हूँ ) देश पर थोपे गए आपात काल का नाटकीय मोड़ कहा जा सकता है पर यह घटनाक्रम अचानक संपन्न नहीं हुआ था और ना ही १९ माह तक चले अर्थात २१ मार्च १९७७ ई. तक लागू रहे इस संक्रमण काल के दुष्प्रभाव को आज तक समाप्त किया जा सका है | यह भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय आन्दोलन के उदात्त मूल्यों का आधिकारिक अंत था |भारतीय राजनीति में आदर्शो का खुले तौर पर निलंबन इस घटना के बाद से ही प्रारम्भ हुआ और आज यह अपने दानवी रूप में हमारे सामने है | यहाँ लोकनायक के पत्र के इस अंश को उदधृत करना समीचीन होगा जिसे उन्होंने चंडीगढ़ में अपनी नजरबंदी के दौरान श्रीमती गांधी को लिखा था –

” शिक्षा समाप्त कर लेने के बाद मैंने अपना सारा जीवन देश की वेदी पर अर्पित कर दिया और इसके एवज में कुछ भी नहीं माँगा | आपके शाशन में कैदी के रूप में मर जाने में मुझे संतोष ही रहेगा ……………………………….क्या आप मुझ जैसे व्यक्ति की सलाह मानेगी ? मेहरबानी कर के उस नींव को ध्वस्त ना करें जिसे राष्ट्रपिता और आपके श्रेष्ठ पिता ने बनाया था | आप जिस रास्ते पर चल रही है उस पर संघर्ष और कष्ट के सिवाय और कुछ नहीं है | आपने एक महान परम्परा ,श्रेष्ठ मूल्य और गतिमान लोकतंत्र विरासत के रूप में प्राप्त किये है , इन सभी को विनिष्ट कर न छोड़े | फिर उन्हें सजाने – सवांरने में बहुत समय लगेगा |”
अपने लम्बे राजनीतिक कार्यकाल में यधपि श्रीमती गांधी ने अभूतपूर्व सफलतायें अर्जित की और राष्ट्रीय विकास में भरपूर योगदान दिया पर उनके सम्पूर्ण आभामंडल को आपातकाल के दौरान उनके द्वारा किये गए कार्य भूलुंठित कर देते है | अपनी पुस्तक ‘ प्रधानमन्त्री कार्यालय से : आपातकाल एक डायरी ‘ में प्रधानमन्त्री कार्यालय के तत्कालीन संयुक्त सचिव श्री बिशन टंडन लिखते है – ” १९६९ से १९७२ तक की घटनाओं को आधार बना कर श्रीमती गांधी ने कोई ठोस कार्य नहीं किया ……………………………….सच पूछिए तो उन्होंने एक बड़ा अवसर गवाँ दिया |प्रशाशनिक नेत्रित्व के गुणों का उनमे कोई विकास नहीं हुआ और राजनीति में वह कांग्रेस की परंपरागत नीति सर्वानुमति को सुदृढ़ करने की बजाय अपनी एक अलग छवि बनाने में लगी रहीं |यधपि यह कार्य वह पहले ही शुरू कर चुकी थी | १९६७ के चुनाव से पहले अपने और कामराज के मतभेदों पर चर्चा करते हुए प्रसिद्द पत्रकार श्री कुलदीप नैयर से उन्होंने कहा ‘ देखिये प्रश्न यहाँ यह है की पार्टी किसे चाहती है और जनता किसे चाहती है | जनसाधारण में मेरा स्थान अप्रितम है |………….बाद की सफलताओं ने इस दंभ और अहंकार को और बढ़ा दिया | बस इंदिरा गांधी अपने एक नए व्यक्तित्व की परिभाषा और व्याख्या करने में लगी रहीं | ” ( पेज १०-११)

    वस्तुतः श्रीमती गांधी को भारतीय राजनीति में खुले रूप में मैकियावालीवाद को प्रविष्ट कराने का श्रेय दिया जा सकता है | ऐसा नहीं है की इसके पहले हमारा राजनीतिक वातावरण पूरी तरह शुद्ध था पर फिर भी नैतिकता और आदर्शो का एक आवरण जो अभी तक कायम था उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया गया | जैसा की मैने पहले भी कहा कि यह परिवर्तन अचानक नहीं आया था |१९७५-७६ के बहुत पहले से ऐसे संकेत लगातार प्राप्त हो रहे थे कि भारतीय राजनीति अपने आध्यात्मवाद से पीछे हट रही है जो अभी तक उसकी मौलिकता रही है | सत्ता किसी भी कीमत पर अब राजनीति की पहली शर्त बन गयी थी | लाइसेंस काण्ड ( तुलमोहन राम ) और भारत सेवक समाज ( ललित नारायण मिश्रा) मामले में दोषी मंत्रियो को बचाने की सरकारी जिद , १९७१ के युद्ध के समय से लागू हुए आपातकाल को १९७५ तक जारी रखना और समाप्ति के लिए विपक्ष से सौदेबाजी का प्रयास करना , १९७३ में तीन न्यायधीशो की वरिष्ठता का उल्लंघन कर के ए.एन. रे को मुख्य न्यायधीश बनाया जाना , समर्पित न्यायपालिका की मांग ( यह तब जब गोलकनाथ मामले के बाद केशवानन्द भारती मामले में सर्वोच्चन्यायालय ने अधिक लचीला निर्णय दिया था ) आदि अनेक बिंदु है जिस से इस बात की पुष्टि होती है |
    इस क्षरण में और अधिक तेजी तब आई जब इंदिरा जी के छोटे पुत्र स्व. संजय गांधी ने राजनीति में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया | उनका रवैया पूर्णतया सर्वाधिकारवादी था और इस पर प्रधानमंत्री का वरदहस्त उन्हें प्राप्त था | प्रारम्भ में श्रीमती गांधी द्वारा उन्हें एक उधोगपति के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया गया | इसके लिए मारुति कार की योजना लायी गयी | हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल ने इसके लिए मुफ्त जमीन दे कर दरबार में अपनी हैसियत बढ़ा ली | कार का इंजन तस्करी के द्वारा मंगाने कई बावजूद यह योजना पूरी तरह असफल सिद्ध हुई और अब संजय पूरी तरह से राजनीति में आ गए | वे इस तरह अराजक हो चुके थे की अपनी माँ और बड़े भाई से बदसलूकी कर बैठते थे | तत्कालीन विधिमंत्री गोखले से उन्होंने कहा था की मेरे ऊपर कोई कानून लागू नहीं होता | आज के कई गणमान्य कांग्रेसी नेता और नेत्रियां उनकी चापलूसी और चाकरी कर के आगे आये | जल्द ही उनकी और उनकी मित्रमंडली की हैसियत किसी भी वरिष्ठ मंत्री से जादा हो गयी | संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा बुरी तरह से गिर गयी | जे. पी. को १९७२ में कहना पडा कि ” वर्तमान में मुख्यमंत्रियों को पटवारी बना दिया गया है | एक व्यक्ति के हाथो में सत्ता का केन्द्रीयकरण चिंता की बात है | सारे तंत्र को इस तरह कसा जा रहा है कि कोई चूँ-चपड़ ना कर सके | ” बिशन टंडन अपनी डायरी में लिखते है कि असंवैधानिक तरीके से सारी जरुरी फाइले संजय गांधी की स्वीकृति के लिए जाने लगी और सचिव स्तर की महत्वपूर्ण नियुक्तियों के लिए अधिकारियों का साक्षात्कार उनके द्वारा लिया जाने लगा |

    चारो तरफ भय और अविश्वास का वातावरण बन गया था | स्व. दुष्यंत कुमार ने इस वातावरण पर सटीक टिप्पड़ी करते हुए लिखा –
    एक गुडिया की कई कठपुतलियो में जान है
    एक शायर यह तमाशा देख कर हैरान है |
    यही वह वातवरण था जिसमे बरुआ जसे लोग इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा जैसे नारे लगा रहे थे और एच. आर. गोखले कह रहे थे – इस संविधान का कोई बेसिक स्ट्रक्चर है और वह परिवर्तनीय नहीं है – ऐसा मै कतई नहीं मानता | इस संविधान में कोई भी परिवर्तन किया जा सकता है | जिस चीज की व्याख्या ही नहीं दी गयी है उसका अस्तित्व भी कैसे माना जा सकता है ? ( क्रमशः )

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