- 20 Posts
- 6 Comments
( गतांक से आगे )
भारतीय राजनीति में आ रहे इस अपकर्ष को कई राजनेताओं और विचारको ने जाना और समझा | उदाहरण के लिए स्वयं जय प्रकाश ने १९७४ में बिनोबा भावे को लिखे एक पत्र में कहा –
” आध्यात्मिक मूल्यों का नैतिकता के साथ गहरा सम्बन्ध है | राजनीतिक और शाशकीय नैतिकता का जितना गहरा पतन इंदिरा जी के शाशन काल में हुआ है , उतना कभी नहीं हुआ था | उनका स्वयं का आचरण दूषित रहा है | सत्ता की लड़ाई में चाहे जैसा भी साधन प्रयोग कर लो सब कुछ क्षम्य है , इंदिरा जी की यही राजनीतिक मान्यता है | “
( संसद में तीन दशक , खंड २ , पेज ६९ )
इसी तरह १२ दिसंबर १९७४ की रात को पी.एम.ओ. के तत्कालीन संयुक्त सचिव बिशन टंडन अपनी डायरी में लिखते है-
” प्रधानमन्त्री के खिलाफ जो याचिका चल रही है यदि वह उनके विरुद्ध जाती है तो वे आसानी से न्यायालय का निर्णय नहीं मानेंगी | उससे बचने के लिए वे जमीन – आसमान एक कर देंगी | यही उनका चरित्र है | “
पुनः ३१ दिसंबर १९७४ को वह लिखते है –
” धीरे – धीरे एक क्राइसेस का घेरा बढ़ता जा रहा है | यदि स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो वह सरकार को दबोच लेगा ………………… प्रधानमन्त्री अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए कुछ भी करने से नहीं हिचकेगीं | हमारे लोकतंत्र को इससे काफी ख़तरा हो सकता है , व्यक्ति की स्वाधीनता का हनन हो सकता है …………….नया वर्ष बड़ी भयानक आशंकाओं के साथ समय पटल पर उभर रहा है | “
आशंकाओं के इन बादलों को उनकी सर्वाधिक वास्तविकता के साथ लोकनायक ने देखा था | भारत छोड़ो आन्दोलन के समय वे एक प्रमुख राष्ट्रीय नेता और गांधी जी के विश्वश्त सहयोगी के रूप में उभरे थे पर उनकी ह्त्या के बाद लगभग अराजनैतिक जीवन बिता रहे थे और अपना जीवन भूदान आन्दोलन को समर्पित कर चुके थे | बदली हुई परिस्थितियों ने उन्हें एक बार फिर सक्रिय होने को बाध्य कर दिया |
प्रारम्भ में उन्होंने संवाद और पत्राचार के माध्यम से सरकार के दृष्टिकोण में बदलाव लाने की चेष्टा की | १९७२ से १९७३ तक , लगभग डेढ़ साल दोनों के बीच काफी अच्छे सम्बन्ध रहे | डाकू समर्पण और मृत्युदंड के मसले पर इंदिरा जी ने जे. पी . की सलाह का सम्मान भी किया पर वे यह समझ पाने में असफल रही कि जे.पी. व्यक्तिगत लाभ की लड़ाई नहीं लड़ रहे है | शायद यह वह दौर था जब इंदिरा राजनीतिक रूप से जे.पी. को अपने पाले में लाने का प्रयास कर रही थी ( बिनोबा के मामले में वे सफल भी रहीं ) परन्तु १९७३ में जब सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठता का उल्लंघन किया गया तो जय प्रकाश खुल कर विरोध में सामने आ गए | इस सन्दर्भ में उन्होंने प्रधानमन्त्री और सांसदों को पत्र लिखे और अपने विचार विनम्रता के साथ सामने रखे | पुनः १९७३ में ही उन्होंने सांसदों को दो और पत्र लिखे | पहले पत्र में उन्होंने नागरिक अधिकारों की सुरक्षा ( मीसा के दुरपयोग के सन्दर्भ में ) और लोकतांत्रिक संस्थाओं में आ रहे ह्रास की चर्चा की थी और दूसरे अधिक महत्वपूर्ण पत्र में उन्होंने भ्रष्टाचार निवारण हेतु लोकपाल कानून का सुझाव दिया और शिक्षा में सुधार की चर्चा की |
जे.पी. के इन सुझावों का सरकार ने कोई विशेष संज्ञान नहीं लिया | इस पर सरकार की प्रतिक्रया कुछ वैसी ही थी जैसी कि हाल के दिनों में लोकपाल आन्दोलन के समय दिखाई दी थी | ( यहाँ मै केवल सरकारी प्रतिक्रिया की बात कर रहा हूँ ) सरकार ने मामले को टालना चाहा और वादों – आश्वासनों से ही काम निकाल लेने की सोच दिखाई | जे.पी. को फ्रस्टेट और पद लोलुप कहा गया और उनके अभियान को जनसंघ और आनन्दमार्गियो का षड़यंत्र बताया गया यह भी कहा गया की इसमें विदेशी पैसा लगा है | भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जो उस वक्त पूरी तरह से सरकारी पाले में थी ने भी इसी तरह के आरोप मढ़े जिसका जवाब देते हुए जे.पी. ने कहा – ” यह गर्वोक्ति लगेगी पर मैं कहने को विवश हूँ कि जिस दिन जे.पी. देशद्रोही होजाएगा ,उस दिन देश में कोई भी देशभक्त नहीं रहेगा | “ श्रीमती गांधी का व्यवहार दिनो-दिन कटु से कटुतर होता जा रहा था |१ अप्रैल १९७४ को भुवनेश्वर में उन्होंने लोकनायक के लिए कड़े अपशब्दों का प्रयोग किया और दो दिन बाद दिल्ली में बिहार के सांसदों को संबोधित करते हुए उसे आपत्तिजनक लहजे में दुहराया | युवा तुर्क कहे जाने वाले भू.पू. प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर ने , जो उस समय कांग्रेस में ही थे , ने श्रीमती गांधी को सही सलाह देने का प्रयास भी किया पर वे विफल रहे ( २५ जून को उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया था ) यंग इंडिया में छपे अपने एक लेख में श्री चन्द्रशेखर ने लिखा था –” जे.पी. सत्ता की लड़ाई नहीं लड़ रहे है , इसलिए सत्ता के सहारे उन्हें नहीं हराया जा सकता | इस लड़ाई में वह स्वयं अपने को दाँव पर लगा देगे और उससे जो तूफान उठेगा उसका सामना करने की क्षमता कांग्रेस में नही है |”
चन्द्रशेखर जिस तूफान की बात कर रहे थे उसके आने की आहट सुनाई देने लगी थी | इसकी शुरुवात १९७३ में गुजरात राज्य के एल. इ. इन्जीनरिंग कालेज की मेस से हुई जहाँ मेस का चार्ज यकायक अस्सी रुपये से बढ़ा कर एक सौ बीस रुपये कर दिया गया | इस बढ़ी हुई दर को छात्रों द्वारा कालेज प्रशाशन , स्थानीय नेताओं और मेस मालिक की दुरभिसंधि के रूप में देखा गया | अपनी शुरुवात में इसे छोटा मोटा छात्र आन्दोलन समझा गया पर जल्द ही इसने नेताओं के भ्रष्ट आचरण के खिलाफ चलने वाले जन आन्दोलन का रूप ले लिया जिसे इतिहास में नवनिर्माण आन्दोलन के नाम से जाना गया | आन्दोलन के छात्र जे. पी. के विचारों से प्रभावित | इसके पहले जय प्रकाश युवको को सम्बोधित अपनी प्रसिद्द अपील भी जारी कर चुके थे | शीघ्र ही छात्रों की और से जे, पी. को आन्दोलन का नेत्रित्व करने बुलावा आया पर उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया | फिर भी जय प्रकाश के विचारो से प्रभावित यह आन्दोलन बढ़ता ही जा रहा था | आन्दोलन की बढ़ती तीव्रता यह दिखा रही थी की यदि परिस्थितयां परिपक्व हो तो छोटी-छोटी बातो पर भी विशाल जनआन्दोलन उठ खड़े होते हैं | पूरे गुजरात में विधायको से उनके त्यागपत्र मांगे जाने लगे | किसी विधायक को सामाजिक बहिष्कार भुगतना पडा तो किसी विधायक के यहाँ दूध वाले , धोबी और नाइओं ने आना बंद कर दिया | ( याद करे १९०५ ई. का नाऊ -धोबी आन्दोलन ) मजबूर हो कर जादातर विधायको को इस्तीफा देना पडा | कांग्रेसी आलाकमान को चिमन भाई पटेल सरकार को निर्देश देना पडा कि वह विधानसभा भंग करने की अनुशंशा करे | विधान सभा भंग कर दी गयी |
( क्रमशः )
Read Comments