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१९७७ में हुए चुनाव से ठीक पहले दिए गए अपने एक साक्षात्कार में श्री मोरारजी देसाई ने कहा कि आपातकाल के दौरान ‘ संविधान की नसबंदी ‘ कर दी गयी | मोरार जी का यह कथन सत्य के बहुत ही निकट था | संघीय प्रणाली वाले किसी भी लोकतांत्रिक देश में संविधान वहाँ की राजव्यवस्था का मूलाधार होता है | एक सफल संविधान न केवल जनता की इच्छाओं को प्रतिबिंबित करता है अपितु शाशको को उनकी मनमानी करने से भी रोकता है , जनता के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करता है | अतः जब कोई शाशक तानाशाह बनाना चाहता है तो संविधान उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा बन जाता है | श्रीमती गांधी भी इसका अपवाद नही थी | आपात काल के १९ महीनो में उनका आचरण ” मै ही राज्य हूँ ” जैसा था | वे कांग्रेसी नेता जो आज बात – बात में भारत के संविधान कि दुहाई देते है उस समय श्रीमती गांधी का चरण – चुम्बन कर रहे थे जब वे संविधान के मूलभाव को समाप्त कर देने पर तुली हुई थीं | लेख के अगले अनुच्छेदों में हम देखेगे कि किस प्रकार उस समय कांग्रेस द्वारा संविधान के बलात्कार का प्रयास किया गया था | यह खेद का विषय है कि कार्य में सहयोग देने वाले कतिपय महापुरुष आज संविधान के अभिवावक बने बैठे हैं |
आपातकाल के पूर्व से ही श्रीमती गांधी और उनके चाटुकार सहयोगियों का प्रयास था कि प्रधानमंत्री के रूप में श्रीमती गांधी को सभी प्रकार की संवैधानिक उन्मुक्तियां प्राप्त हो जाए | इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘ गोलकनाथ ‘ और ‘ केशवानंद भारती ‘ वाद में दिए गए निर्णय को समाजवादी ढांचे वाले समाज के निर्माण के रास्ते में बाधा के रूप में प्रस्तुत किया जाता था | मौलिक अधिकारों व नीति निर्देशक तत्वों के बीच अंतरविरोधो का अनावश्यक विवाद पैदा किया गया और प्रतिबद्ध न्यायपालिका की अतार्किक मांग पैदा की गयी | इस सबके पीछे वास्तविक मंशा कांग्रेसी सर्वाधिकार की स्थापना थी ना कि कुछ और | लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति प्रधानमन्त्री की असहजता शुरू से ही साफ़ हो गयी थी | १९६३ में अपने मित्र को लिखे एक पत्र में इंदिरा जी ने इस बात पर चिंता जाहिर की थी कि लोकतंत्र किसी औसत आदमी को उंचाई तक पहुंचा देता है और चीखने-चिल्लाने वाले आदमी को भी ताकतवर बना देता है , भले ही मुद्दों के बारे में उसकी समझ शून्य हो | बाद में अपने जीवनी लेखक डाम मारिस से आपातकाल के बारे में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा – ” आप जानते है कि मुल्क किस हालत में था | अगर मै इस्तीफा दे देती तो मुल्क का नेतृत्व कौन करता ? मेरे सिवाय कोई ऐसा नहीं था जो मुल्क को संभाल पाता | ” इसी भावना से वशीभूत हो कर उन्होंने एक बहुप्रचारित कार्यक्रम में अपने आवास से संसद तक घोड़े की बघ्घी में सफ़र किया था और यही विचारधारा आखिरकार आपातकाल में परिवर्तित हो गयी |
आपातकाल के अश्लील आरोपण के तुरंत बाद संसद की रिपोर्टिंग का अधिकार देने वाला कानून पार्लियामेंट्री प्रोसीडिंग्स ( प्रोटेक्शन आफ पब्लिकेशन ) एक्ट १९५६ रद्द कर दिया गया जिससे संसद में क्या हो रहा है , इसकी स्वतन्त्र जानकारी का जनता तक पहुंच पाना असंभव हो गया | इसके बाद संविधान में निर्लज्ज संशोधनों की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई जिसकी एक सन्क्षिप्त फेरहिस्त नीचे दी गयी है-
१- २७ जुन १९७५ को राष्ट्रपति द्वारा एक अध्यादेश लागू किया गया जिसमें भारत के नागरिको को मूल अधिकारों को उल्लंघन होने पर न्यायिक उपचार से वंचित कर दिया गया | ये मूल अधिकार अनु. १४ ( विधि के सम्मुख समता और विधियों का सामान संरक्षण ) , अनु. २१ ( कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त जीवन या स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित ना किया जाना ) और अनु. २२ ( समुचित कारण बताये बिना गिरिप्तारी से बचाव ) थे | बाद में स्वतंत्रता की बहाली के लिए अदालत जाने के अधिकार को भी स्थगित कर दिया गया |
२- इसके तुरंत बाद संविधान में ३८वा संशोधन किया गया जिसमे राष्ट्रपति द्वारा आपात की उद्घोषणा और राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा अध्यादेश के प्रख्यापन को न्यायपालिका के पुनरावलोकन के अधिकार से बाहर कर दिया गया | इस प्रक्रिया द्वारा संविधान के अनु. १२३ , २१३ , २३९ख , ३५२ , ३५९ और ३६० को संशोधित ( अपवित्र ) किया गया |
३- ३९वे संविधान संसोधन द्वारा राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति , प्रधानमत्री और लोक सभा अध्यक्ष को न्यायिक संवीक्षा की परिधि से बाहर कर दिया गया | इसके द्वारा अनु. ७१ का संशोधन किया गया जबकि संविधान में एक नए अनु.३२९क को भी अन्तःस्थापित कर दिया गया | इस संशोधन का मूल उद्धेश्य श्रीमती गांधी के विरुद्ध लंबित चुनाव याचिका को निष्प्रभावी बना देना था | यह प्रावधान कर दिया गया कि इन व्यक्तियों के चुनावों के विरुद्ध याचिका केवल संसद द्वारा निर्मित विशेष मंच पर ही दी जा सकती है | विधेयक की धारा ४ में प्रावधान था कि इन व्यक्तियों के चुनाव के सम्बन्ध में किसी भी उच्च न्यायालय में लिए गए सभी निर्णय निष्प्रभावी माने जायेगे | भारत के संसदीय इतिहास में यह सर्वाधिक तेजी से पारित होने वाले विधेयको में से एक था | यह विधेयक ७ अगस्त १९७५ को लोकसभा में प्रस्तुत किया गया और मात्र दो घंटे की बहस के बाद इसी बिन यह लोकसभा द्वारा पारित कर दिया गया | पुनः ८ अगस्त १९७५ को राज्य सभा में प्रस्तुत हुआ और इसी दिन वहा से भी पारित हो गया | ९ अगस्त को एक ही दिन में में यह राज्य विधान सभाओं द्वारा पारित करा लिया गया और १० अगस्त को राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत कर दिया गया | दुर्भाग्यवश संविधान में इस अतिरिक्त तेजी के विरुद्ध आज तक कोई रक्षोपाय नही है |
४- ४१वे संशोधन द्वारा यह उपबंधित किया गया कि किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ न्यायिक कार्यवाही नही की जा सकती जो प्रधानमन्त्री है या रह चुका है | ये कृत्य कार्यकाल के दौरान या उससे पहले के हो सकते है |इस प्रकार का संशोधन भारतीय संविधान में निहित शक्ति पृथक्करण सिद्धांत और विधि के समक्ष समता ( अनु. १४ ) के पूर्णतया विपरीत था | राज्यसभा द्वारा अनावश्यक जल्दबाजी दिखाते हुए इसे पास कर देने के बावजूद सौभाग्यवश इस पर पुनर्विचार हुआ और निचले सदन में इसे पेश नही किया जा सका |
5– ४२वा संविधान संशोधन श्रीमती गांधी के सर्वाधिकारवाद की पराकाष्ठा के जैसा था | यह संशोधन एक प्रकार से सम्पूर्ण संविधान को बदल देने की कार्यवाही के सामान था | इसके द्वारा प्रभावित होने वाले अनु. की लम्बी फेरहिस्त पर ध्यान दे -उद्देशिका , अनु. ३१ग , ३९, ५५, ७४, ७७, ८१, ८२, ८३, १०० , १०२, १०५, ११८, १४५, १६६, १७०, १७२, १८९, १९१, १९४, २०८, २१७, २२५, २२७, २२८, ३११, ३१२, ३३०,३५२, ३५३, ३५६, ३५७, ३५८, ३५९, ३६६, ३६८, ३७१च तथा सातवी अनुसूची संशोधित की गयी और इसके अतिरिक्त अनु. १०३, १५०, १९२,२२६ प्रतिस्थापित किये गए जबकि अनु. ३१च, ३२क , ३९क, ४३क, ४८क, ५१क, १३१क, १३९क, १४४क, २२६क, २२८क, २५७क, ३२३क, ३२३ख को अन्तःस्थापित किया गया – ( स्रोत – दुर्गा दास बसु, भारत का संविधान ) यह संशोधन भारतीय संविधान के मूल भाव को समाप्त कर देने के सामान था वह भी तब जब आधे से अधिक विपक्ष जेल में बंद था और सर्वोच्च न्यायालय आधारिक ढाचे का सिद्धांत भी दे चुका था | यह संशोधन कार्यपालिका-विधायिका-न्यायपालिका के संतुलन को विखंडित कर देने वाला था | इस संशोधन द्वारा संविधान में यह सिद्धांत स्थापित करने का प्रयास किया गया कि संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति अत्यान्तिक है और इसे किसी भी आधार पर किसी भी न्यायालय में विचारित नहीं किया जा सकता | इस संशोधन विधेयक का सर्वाधिक आपत्तिजनक पहलू यह था कि इसके द्वारा संसद में गणपूर्ति( कोरम ) के प्रावधान को समाप्त कर दिया गया जिसका अर्थ यह था की अब कांग्रेस के दो या चार सांसद ही मिल कर पूरे देश के लिए विधि निर्माण का कार्य कर सकते थे | एक अन्य आपत्तिजनक प्रावधान यह भी था की यह राष्ट्रपति को एक कार्यकारी आदेश के द्वारा दो वर्षो के लिए संविधान संशोधन की शक्ति प्रदान करता था |
( 44वे संशोधन द्वारा इन परिवर्तनों को जनता सरकार ने रद्द कर दिया )
उपरोक्त तथ्य अपने आप में इतने पर्याप्त और मुखर है कि इनके आगे कुछ भी कहने को शेष नही रह जाता |शायद इसी कारण आचार्य जे.बी. कृपलानी ने शिकायत की थी – ” मेरे पास कोई संविधान नहीं है , मेरे पास बस संशोधन ही संशोधन है | ” इस प्रकार के प्रखर संवैधानिक अन्धकार में न्यायमूर्ति हंस राज खन्ना , एडवोकेट मोहम्मद करीम छागाला और एडवोकेट नानी पालखीवाला के नाम प्रातःस्मरणीय है जिन्होंने इस घने अँधेरे में भी न्यायरूपी आशा की ज्योति जलाए रखी |
अगस्त १९७५ में जब अटल बिहारी वाजपेई , स्व. श्यामनंदन मिश्र , स्व. मधु दंडवते और लाल कृष्ण अडवाणी को बंदी बनाए जाने के विरुद्ध कर्नाटक उच्च न्ययालय में समादेश याचिका दायर की गयी तो न्यायमूर्ति डी. एम.चंद्रशेखर न्यायमूर्ति बी. वेंकटस्वामी के समक्ष बहस हेतु नेहरु जी के शिक्षा मंत्री और इंदिरा जी के विदेश मंत्री रहे एम. के. छागला उपस्थित हुए | उनकी उपस्थिति ही आपातकाल के विरुद्ध एक गंभीर टिप्पड़ी थी | उनकी इस एतिहासिक बहस ने आपात काल की प्रक्रिया की धज्जियां उधेड़ दी और इसका प्रभाव रहा कि माननीय उच्च न्यायालय ने महाअधिवक्ता नीरेन डे की समस्त आपत्तियो को खारिज करते हुए याचिकाकर्ताओं को उन्मुक्ति प्रदान की |
बाद में जब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय गया तो मुख्य न्यायधीश ए. एन. रे ( ये वही न्ययाधीश थे जिन्हें इंदिरा जी ने वरिष्ठता का उल्लंघन कर मुख्य पद पर पहुंचाया था ) की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने ४:१ के बहुमत से सरकार के पक्ष में निर्णय सूना दिया | एकमात्र न्यायमूर्ति एच. आर . खन्ना ने सरकार के खिलाफ निर्णय सुनाया था | ( इंदिरा जी ने १९७७ में न्यायमूर्ति खन्ना की वरिष्ठता की अनदेखी कर सरकार के हक़ में फैसला देने वाले न्यायधीश हमीदउल्ला बेग को मुख्य न्यायधीश बना दिया था ) मुकद्दमे की सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति खन्ना ने महाअधिवक्ता से सीधा प्रश्न किया कि अनु.२१ में नागरिको को प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है | यदि आपातकाल में निरुद्ध किसी व्यक्ति की ह्त्या सत्ताधारी व्यक्तिगत कारणों से कर देता है तो क्या आप यह सुझाव देंगे कि उसके संबंधियों को न्याय नहीं मिलना चाहिये ? महाधिवक्ता ने उत्तर दिया – ‘ मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता का अनुभव नहीं हो रहा है , किन्तु कानूनी तौर पर स्थिति कुछ ऐसी ही है |’ इस पर न्यायमूर्ति खन्ना ने ‘सुविज्ञ’ बहुमत के विपरीत अपना निर्णय अलग से दिया जिस पर ३० अप्रेल १९७६ को न्यूयार्क टाएम्स ने अपने सम्पादकीय में लिखा – ” भारत जब कभी पीछे मुड़ कर अपनी स्वतंत्रता और लोकतंत्र को देखेगा , तो निश्चित रूप से कोई सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश एच. आर. खन्ना का स्मारक जरुर बनवाएगा | ” ( अपने एक हालके निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त निर्णय को कूड़ेदान में फेंकने योग्य कहा है | )
४४वे संशोधन की ही तर्ज पर सरकार ने आपातकाल लागू करने के कुछ ही माह बाद सर्वोच्च न्यायालय से निवेदन किया कि उसे केशवानंद भारती मामले में १९७३ के अपने निर्णय को रद्द कर देना चाहिये | जब यह एतिहासिक वाद प्रारम्भ हुआ तो इसके नायक प्रख्यात वकील नानी पालखीवाला बन कर उभरे | पालखीवाला यधपि अलाहाबाद वाले मुकद्दमे में सरकार के वकील थे पर जब एक बार आपातकाल लागू कर दिया गया तो उसका विरोध उन्होंने अपना कर्तव्य समझा | मुकद्दमे के दौरान उनकी दलीले इतनी तार्किक और प्रभावशाली थी कि कुछ न्यायधीशो ने इसे पहले ही दिन स्वीकार कर लिया और कुछ ने दूसरे दिन माना | दूसरे दिन के अंत तक १३ न्यायधीशो की पूर्ण संवैधानिक पीठ में सरकार के चहेते मुख्य न्यायधीश ए. एन. रे अकेले पड़ गए | अगले दिन मुख्य न्यायधीश महोदय ने पीठ को भंग कर दिया और इस प्रकार संविधान के मूल ढांचे को बदलने का यह कुत्सित प्रयास सफल न हो सका | ………………….( क्रमशः )
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